Thursday, February 18, 2010

वतन बेच देगें।

कली बेच देगें चमन बेच देगें,
धरा बेच देगें गगन बेच देगें,
कलम के पुजारी अगर सो गये तो
ये धन के पुजारी
वतन बेच देगें।



जयराम “विप्लव” { jayram"viplav" }
http://www.janokti.com/

Monday, February 15, 2010

कहीं खून पानी तो नहीं बन गया?

सत्याग्रहों की नौटंकी के बीच सत्याग्रह पर अटल हकीकत की इरोम

देशवासी महात्मा गांधी, गौतम बुद्ध और महावीर जैसे अहिंसावादियों की छवि को धूमिल करने को आतुर हैं और वे जाने-अनजाने उन सफेदपोश कुकरमुतों का साथ दे रहे हैं, जो देश को दीमग की तरह खोखला कर रहे हैं। बड़ी-बड़ी बातें करने वाला लोकतंत्र का कथित चौथा स्तंभ भी नौटंकियां करने में मशगूल है, जबकि देश दिनों-दिन गर्त में जा रहा है। इन सबसे किसी भी तरह की उम्मीद करना ही बेमानी है, क्योंकि किसी को ज़रा सी लज्जा होती तो आज मणिपुर के एक अदने से हॉस्पीटल में सत्याग्रह की मिसाल बन चुकी इरोम शर्मिला यूं ना तड़प रही होती। हैरत की बात है कि आज इरोम शर्मिला जिंदगी व मौत की जंग लड़ रही है और उसने सत्याग्रह को कागज के पन्नों व भाषणों से बाहर कर हकीकत का अमली जामा पहनाया है। लेकिन अफसोस है की आज सत्याग्रह के कोई मायने नहीं रहे और सत्याग्रह पर राजनीतिक रोटियां सेकने वालों के पौ-बारह पच्चीस है।

जी हां, हम बात कर रहे हैं मणिपुर की उस इरोम शर्मिला की जो वर्ष 2000 से अनशन पर बैठी है और महज प्लास्टिक की पाईप के भरोसे जिंदा है। भले ही वह गांधी की तरह अटल व अडिग़ है, लेकिन गांधी के नुमाइंदों के पास उसके लिए तनिक भी समय नहीं है और न ही है उनके पास वो जि़गरा जो गांधी के दूसरे नाम यानी श्रीमति इंदिरा गांधी के पास था। दस वर्षों से अनवरत संघर्ष की लौ जला रही इस महिला के लिए न तो महिला संगठन आगे आ रहे हैं और न ही इंसानियत का जामा पहनने वाले मानवाधिकार संगठन। पर लगता है, उस अंधेरी रात को उजली सुबह की किरण शायद ही कभी नसीब हो, क्योंकि जिस देश का बच्चा देशभक्ति की बजाए सेक्स शिक्षा ग्रहण करता हो वहां संवेदना, इंसानियत, अपनेपन की बातें करना ही बेमानी होगी।




दरअसल, अशांत व उग्रवाद से दनदनाते मणिपुर में वर्ष 1980 से सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम [एएफएसपीए] 1958 लागू किया गया है। इस अधिनियम के तहत सेना को बल प्रयोग करने, बिना वारंट के किसी के घर में घुसकर तलाशी लेने, किसी भी वक्त कोई सर्च कार्रवाई करने, किसी को भी बिना सबूत केवल संदेह के आधार पर गिरफ्तार करने व गोली मारने की छूट दी जाती है। यही नहीं कार्रवाई करने वाले सेना-पुलिस कर्मी के खिलाफ केंद्र सरकार की अनुमति के बिना कोई न्यायिक कार्रवाई नहीं हो सकती। इसी छूट का फायदा जायज-नाजायज तौर पर उठाया जा रहा है। मणिपुर में आतंकवाद के साथ सरकारी कहर भी जारी है। भारत छोड़ों आंदोलन के दिनों जो हालात देशभर में थे वे आज मणिपुर में हैं। इरोम शर्मिला इसी तानाशाही रवैये को बयां करते अधिनियम के खिलाफ है और वो इसे हटाने की मांग को लेकर अनशन पर है, जिसे चार नवंबर 2009 को एक दशक बीत गया। इरोम शर्मिला यानी लोहस्त्री, जिसका जन्म 14 मार्च 1972 को मणिपुर के छोटे से कस्बे में हुआ। बेहद होनहार व छरहरी काया वाली ईरोम लेखन में रुचि रखती थी और इस कारण उसने पत्रकारिता में कोर्स किया तथा इसके बाद वह एक स्थानीय अखबार में नियमित कॉलम भी लिखती रही। इरोम के युवाकाल के दिनों मणिपुर विद्रोह की आग में झुलस रहा था, जो अब तक जारी है। इसी बीच एक नवंबर 2000 को असम के दो विद्रोही संगठनों के बीच हुए एक हमले से आहत स्थानीय बटालियन ने मालोम बस स्टैंड पर करीब दस बेकसूर लोगों को मार गिराया। अगले दिन समाचार पत्रों में जो भयावह तस्वीरें प्रकाशित हुईं, उनमें वर्ष 1988 में राष्ट्रपति से वीरता पुरस्कार प्राप्त कर चुकी 18 वर्षीय सिनम चंद्रमणी का बदहाल शव था। उसके अलावा 62 वर्षीय वृद्ध महिला लिसेंगबम इबेतोमी सहित आठ और क्षत-विक्षत शव भी थे। इन्हें देखकर बदहवास हुई युवा इरोम चुन्नु शर्मिला खुद का संभाल नहीं पाई और चार नवंबर 2000 से राष्ट्रपिता गांधी के कदम चिन्हों पर चलते हुए सत्याग्रह शुरू कर दिया। हालांकि उसे उस दिन आभास नहीं था कि अब न तो गांधी जी हैं और न गांधी के नक्शेकदम चलने वालों का कोई शागिर्द। चौंकाने वाली बात है कि गांधी के इस देश में युवा शर्मिला को किसी का साथ तो नहीं मिला, बल्कि फिरंगियों की तानाशाही के मानिद उसे आत्महत्या के आरोप में दो दिन बाद ही गिरफ्तार कर सलाखों के पीछे भेज दिया गया। इसके बाद शुरू हुआ सलाखों से छूटने और फिर से पकड़े जाने का, जो अभी तक जारी है। इरोम फिलहाल अपने अनवरत सत्याग्रह के साथ 'एक अरबी' देश को जगाने की जुगत में है...... लेकिन यह मशां कब पूरी होगी कोई नहीं जानता। पर क्या हमें नहीं लगता कि आज हम सब मिलकर इस खामोश आवाज को बुलंद करें? क्या मां दुर्गा, मदर टेरेसा, श्रीमति इंदिरा गांधी, महारानी लक्ष्मीबाई के इस वतन में इरोम पर जुल्म होता रहेगा और सब जुबां रखते हुए भी खामोश रहेंगे? क्या आधुनिकता के दौर में इतने व्यस्त हो चुके हैं कि हमने कर्म, धर्म, निष्ठा, प्रतिष्ठा, संस्कारों और पुरोधाओं को त्याग दिया है? या फिर .........क्या आज वर्ष 1857 वाला खून पानी बन चुका है?

Thursday, February 11, 2010

कौन लड़ेगा सिस्टम के खिलाफ जंग ?

टेनिस खिलाड़ी रुचिका गिल्होत्रा मामले के आरोपी पर चाकू से हमला करने वाले उत्सव को लेकर घरों से लेकर गलियारों तक चर्चा चल पड़ी है कि, क्या यह सिस्टम के खिलाफ जंग है? इस प्रकरण के आरोपी हरियाणा के पूर्व डीजीपी राठौड़ पर हमला होना निश्चित तौर पर एक युवा मन की पीड़ा को उजागर करता है। युवा, जो आज हर मोड़ पर सिस्टम से व्यथित है और बदलाव की बयार चाहता है। कहा जा सकता है कि वर्तमान में देश को एक क्रांतिवीर की जरूरत है, जो सिस्टम के खिलाफ अपनी आवाज तो बुलंद करे ही साथ में जनताजर्नादन को भी जागरूक कर सके। 
हालांकि सिस्टम के खिलाफ लडऩा इतना आसान नहीं है, जितना आज के युवा फिल्में देखकर उद्वेलित होकर कुछ कर गुजरने की ठान लेते हैं। अपने आदर्शो पर चलते हुए सिस्टम से ही जस्टिस की चाह उसे प्रताडऩा, पिटाई, फर्जी मुकदमों तक पहुंचा देती है। अंतत: कोई रास्ता न देख वह कानून को हाथ में लेने के लिए मजबूर होता है। रुचिका गिल्होत्रा केस में भी शायद यही हुआ है। पहले-पहल मीडिया ने इस केस में मीडिया ने जो भूमिका अदा की, वह सराहनीय थी। लेकिन सरकार के रवैये को भांप उत्सव शर्मा के मन मे गुस्सा आना लाजमी था। क्योंकि आरोपी पूर्व डीजीपी राठौड़ को सरकार वीआईपी ट्रीट दे रही थी, जो किसी भी क्रांतिकारी विचारक के लिए सहनीय नहीं हो सकता। बताया जाता है कि उत्सव शर्मा बेहद होनहार व मिलनसार व्यक्तित्व वाला विद्यार्थी रहा है। वह हमेशा से भ्रष्टï सिस्टम के खिलाफ बोलता आ रहा है। उत्सव के पिता प्रोफेसर एसके शर्मा का कहना है कि वह पिछले कई दिनों से तो कुछ ज्यादा ही न्याय-अन्याय की बातें करने लगा था।
भ्रष्ट सिस्टम से आज हर युवा आहत नजर आ रहा है। हालांकि युवाओं के साथ-साथ बुजुर्ग व महिलाएं भी आहत हैं, लेकिन वे खुले तौर पर इस पर ध्यान नहीं देते और न ही ज्यादा चर्चा करते। जबकि भ्रष्ट सिस्टम के कारण सबसे ज्यादा युवा उद्वेलित होते हैं, जिन्हें उत्तेजित करने में फिल्मों का भी अहम रोल रहता है। नायक, क्रांतिवीर, रंग दे बसंती, थ्री इडीयट्य सहित अनेक फिल्में हैं, जिनमें नायक सिस्टम से संघर्ष करता नजर आता है। यही वजह है कि कुछ घटनाएं  सार्वजनिक रूप से देश में हुई, जो सिस्टम के खिलाफ थीं। नागपुर में 25 जनवरी 2004 को न्यायालय के बाहर छोंपड़ी में रहने वाली एक महिला ने  दुष्कर्म के आरोपी पर हमला कर उसे मार गिराया। एक अन्य मामला इसी वर्ष अक्टूबर में हुआ, जो देशभर में चर्चित रहा। नजदीकी गांव के दो मुस्लिम युवक लंबे समय से महिलाओं के साथ छेडख़ानी करते आ रहे थे, जिससे आहत होकर महिलाओं ने इन्हें ऐसा सबक सिखाया कि आज भी अन्य आरोपियों के लिए ये महिलाएं मिसाल बन गईं। हाल ही में उत्सव शर्मा द्वारा डीजीपी पर किया गया अटैक इसी श्रेणी में आता है। जो भी हो, आज ऐसे क्रांतिवीरों की देश को जरूरत है। अन्यथा हम फिर से प्रकाश की ओर से अंधेरे में चले जाएंगे।
क्या है मामला-
मामले के अनुसार हरियाणा का तत्कालीन डीजीपी टेनिस की उभरती हुई खिलाड़ी को विदेश जाने से रोका और उससे अभद्रता की। यही नहीं रुचिका किसी को कोई शिकायत न करे, इसके लिए बकायदा उस पर उसके परिवार पर दबाव बनाया गया। इसके तहत रुचिका के भाई को झूठे मामले में गिरफ्तार तो किया गया ही साथ में रुचिका का स्कूल से नाम कटवा दिया गया। इसके अलावा रुचिका को हर तरह से प्रताडि़त किया गया, जिसके चलते टेनिस की इस होनहार खिलाड़ी ने आत्महत्या कर ली। खास बात यह है कि रुचिका उस समय महज चौदह साल की थी। रुचिका प्रकरण मीडिया की बदौलत हाल ही में सुर्खियों में आया, लेकिन भारत में न जाने ऐसे कितने प्रकरण हर रोज बनते हैं जो सफेदपोशों व नौकरशाहों के नापाक मनसुबों की भेंट चढ़ जाते हैं।