Saturday, November 6, 2010

बारूद पर ढेर है भारत का भविष्य

एक बच्चा पटाखा बनाए और दूसरा उसे जलाकर दीपावली मनाए. ऐसी विडम्बना तमिलनाडु के शिवकाशी में आसानी से देखी जा सकती है. जहां एक ओर देश के हरेक कोने का बचपन रोशनी के पर्व को मनाने के अपने तरीके व योजना बना रहा है, वहीं शिवकाशी जो आतिशबाजी उद्योग के लिए प्रसिद्ध है, जहां करीबन 40 हजार बाल मजदूर उनकी खुशियों में चार चांद लगाने के लिए पटाखे बनाने में सक्रिय हैं. शिवकाशी वह क्षेत्र है जिसे देश की आतिशबाजी राजधानी के रूप में जाना जाता है. यहां लगभग एक हजार छोटी-बड़ी इकाइयां बारूद व माचिस बनाने में बनाने में जुटी हैं जिनका सालाना कारोबार 1000 करोड़ रूपए है. इस उद्योग के चलते एक लाख लोगों की रोजी चलती हैं जिनमें बड़ी संख्या में महिलाएं व बच्चे भी शामिल हैं.
बाल श्रम नाम के अभिशाप की जहां बात चल ही गई है तो यह स्पष्ट कर दें कि शिवकाशी में इसका प्रमाण आसानी से देखा जा सकता है. मसलन, पंद्रह वर्षीय पोन्नुसामी जो यहां एक पटाखा निर्माणी इकाई में कार्यरत है, पांच साल पटाखे बना रहा है. जब उसने यह पेशा चुना तो उसकी समझ का स्तर क्या रहा होगा यह विचारणीय मसला है. उसके अनुसार वह छठी कक्षा का छात्र था जब उसे जबरन इस काम में उतार दिया गया. काम कराने की मंशा भी उनके माता-पिता की ही थी.प्रतिदिन नौ घंटे की कड़ी मेहनत के बाद वह 60 रूपए पाता है. यह बेगारी उसे वयस्क श्रमिकों को मिलने वाली मजदूरी का केवल चालीस फीसदी है. ऐसे कई उदाहरण हैं जिनसे यह स्पष्ट है कि शिवकाशी इलाके के किशोर-किशोरियों की पढ़ाई-लिखाई में गाज गिरने की आशंका रहती है. छोटी उम्र में ही ऐसे खतरनाक काम में झोंकने के मां-बाप के फैसले के पीछे उनकी गरीबी ही मूल कारण है.
कारखानों में हादसे सामान्यत: होते रहते हैं. ऐसे में मासूमों को घातक काम पर लगाने का सवाल जब उठता है तो श्रमिक संगठनों का जवाब होता है कि मृतकों में कोई भी किशोर नहीं है,जबकि दास्तां कुछ अलग ही है. जुलाई 2009 में हुई एक दुर्घटना में तीन बच्चे मर गए. अगस्त 2010 में तो सरकारी अधिकारियों पर ही गाज गिरी जो अनाधिकृत पटाखा इकाइयों की जांच पर गए थे. बताया गया है कि 8 राजस्व और पुलिस अधिकारियों को इस तहकीकात के दौरान जान से हाथ धोना पड़ा. जब पोन्नुसामी से काम के जानलेवा होने के बारे में पूछा गया तो उसका जवाब यही था कि अगर मैं भाग्यशाली हूं तो कभी हादसा नहीं होगा. बच्चों के अधिकारों के क्षेत्र में काम करने वाली गैर सरकारी संस्था चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राई) के अधिकारी जॉन आर की मानें तो शिवकाशी में करीबन 1050 कारखाने हैं जिनमें से 500 बिना किसी लाइसेंस के चल रहे हैं. पटाखों के अलावा 3989 कारखानों में दियासलाई बनती है. वे मानते हैं देश-विदेश में हो रहे प्रयासों के नतीजतन बाल श्रम पर कुछ अंकुश लगा है. हादसों में इजाफा और बच्चों के काम पर लगाने की नौबत गैर लाइसेंसशुदा कारखानों की वजह से आती है जिनका संचालन घरों की असुरक्षित चारदीवारी में होता है. इन लोगों को लाइसेंस वाली कंपनियां पटाखे बनाने का आदेश दे देती है. अधिक फायदे के लालच व शिक्षा के अभाव में ये लोग आसानी से कानून की दहलीज को लांघ जाते हैं. नाम न छापने की शर्त पर शिवकाशी की ही एक एनजीओ के कार्यकर्ता के अनुसार इस समस्या के बारे में समझ अभी अधूरी है. हम अभिभावकों को जाग्रत करने का प्रयास कर रहे हैं. उन्हें यह समझाया जा रहा है कि वे सीमित आमदनी में गुजर-बसर करते हुए बच्चों के स्वास्थ्य व शिक्षा पर ध्यान दें. कहावत है कि ताली एक हाथ से नहीं बजती और अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता. इसी तर्ज पर सरकार, प्रशासन व एनजीओ का प्रयास भी तब तक सफल नहीं हो जाता जब तक कि अन्य पक्षकार जिनमें आतिशबाजी निर्माण इकाइयों के मालिक व अभिभावक शामिल हैं, स्वेच्छा से पहल न करें. अन्यथा उनकी दीपावली कभी भी प्रकाशमान नहीं हो पाएगी. साभार - शिरीष खरे

Saturday, October 30, 2010

सरहद पर परेशान किसान

श्रीगंगानगर। भारत-पाक सरहद पर बसे किसान इन दिनों खासी परेशानी का सामना कर रहे हैं। हालाद इस कदर बिगड़े हुए हैं कि किसान मरने तक को तैयार हैं, लेकिन उनकी समस्या पर न तो नौकरशाह गौर कर रहे हैं और न ही सफेदपोश। दरअसल, लंबे समय से विभिन्न समस्याओं से जूझ रहे किसानों के सामने हाल ही में आए एक सरकारी फरमान ने कई दुविधाएं खड़ी कर दी हैं'। इस फरमान के मुताबिक सीमा क्षेत्र में तारबंदी के पार दो फिट से ज्यादा ऊंची फसल पर पाबंदी लगा दी गई है। जबकि किसान सीमा क्षेत्र में जो भी फसल बोते हैं, उनकी ऊंचाई दो फिट से अधिक ही है। उक्त समस्या को लेकर किसान जिला प्रशासन से मिल चुके हैं और वे सरकार को भी अपनी समस्या से अवगत करवा चुके हैं। बहरहाल, किसान गुजारिश करते दिखे कि या तो उनकी जमीन को सरकार अपने कब्जे में लेकर हमें मुआवजा दे दे या सीमा पर खड़ा कर हमें गोली मार दे। वाकई में, यदि हालात यही रहे तो वो दिन दूर नहीं जब इस साधन-संपन्न जिले के सीमावर्ती किसान रोटी-रोटी को मोहताज हो जाएंगे।
यहां के ग्रामीण बताते हैं कि वे लंबे समय से परेशान हैं, लेकिन उनकी समस्या सुनने वाला कोई नहीं है। न तो सरकार और न ही अधिकारी इस ओर ध्यान दे रहे हैं तथा नेताओं से उम्मीद करना ही बेमानी लगता है। सीमावर्ती गांव खखां के दारासिंह कहते हैं कि जब से दो फिट से ऊंची फसल न बोने का फरमान आया है, वह इसी ऊहापोह में है कि आखिर खेत में क्या बोएगा। खुद के साथ-साथ उन्हें बच्चों के भविष्य की चिंता भी सताने लगी है। बकौल दारासिंह, 'पता नहीं वो कौन सी मनहूस घड़ी थी, जब सियासतदानों की कारगुजारियों के चलते देश का बंटवारा हुआ और आज हमें ये दिन देखने को मिले। अब तो हर रोज नई समस्या से जूझना हमारी नियती बन चुका है, लेकिन अब और बर्दास्त नहीं होता।' इसी तरह बुजुर्ग गुरप्रीतकौर कहती हैं कि यहां वर्ष 1984 के दौरान तारबंदी होनी शुरू हुई और करीब 22 वर्ष पूर्व (वर्ष 1989) तक यहां तारबंदी हो चुकी थी। इसी के साथ ही उनके बुरे दिन शुरू हो गए, क्योंकि तारबंदी के दौरान उनकी जमीनें उस पार चली गई। ऐसी ही बदहाल स्थिति गुरजंटसिंह के परिवार की है। ग्वार की फसल पकान पर है, लेकिन उसे काटने की इजाजत नहीं मिल रही है। गुरजंटसिंह नेताओं व अधिकारियों से मिलकर वह गुजारिश करता घूम रहा है कि सरकार उसे गोली मार दे तो ठीक है, ताकि सारी समस्या ही खत्म हो जाए। गुरजंटसिंह ने बताया कि उसकी जमीन में कॉटन व सरसों की फसल बहुत अच्छी होती है, लेकिन जो आदेश जारी किए गए हैं वे तो सरासर अन्याय है। अपने जवान बेटे को खो चुकी नसीबकौर ने बताया कि तारबंदी के उस पार जमीन होने के कारण हमेशा ही संकट खड़े होते रहे हैं। यही वजह है कि उनका एक बेटा मजदूरी करता-करता चल बसा। अब दो बेटियों की शादी करनी है, लेकिन नसीबकौर दो जून की रोटी को भी तरस रही हैं। बहरहाल, किसानों को केंद्र व राज्य सरकार से अब भी आस बंधी हुई है।
किसानों का कहना है कि यदि पंजाब में जमीनों का मुआवजा दिया जा सकता है तो फिर राजस्थान के किसानों से सौतेला व्यवहार क्यों किया जा रहा है? यही नहीं यदि सुरक्षा के नाम पर ऐसे आदेश जारी किए जाते हैं तो फिर दूसरे इलाकों में तारबंदी के समीप हालात बदतर क्यों है और सरकार उस इलाके के लिए कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठाती? आखिर हमेशा से ही किसी न किसी तरह की मार झेलते आ रहे किसान ही इस आदेशों की चपेट में क्यों आ रहे हैं? वो भी उस हालात में जब किसान अपनी जमीन सरकार को सौंपने को तैयार हैं? उधर जिला कलेक्टर सुबीर कुमार भी मानते हैं कि किसानों की समस्या जायज है तथा वे कहते हैं कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मद्देनजर बीएसएफ ने एक नॉटीफिकेशन जारी किया है, जिसके मुताबिक किसान तारबंदी के पास दो फिट से ऊंची फसल की बुआई नहीं कर सकेंगे। उनका मानना है कि निश्चित ही यह सुरक्षा का मुद्दा है, लेकिन किसानों की समस्या भी वाजिब है। जैसे भी संभव होगा, हम किसानों की इस जायज मांग को राज्य सरकार के जरिए केंद्र सरकार तक पहुंचाएंगे। 

Saturday, October 2, 2010

पेट नहीं जोश से रिक्शा खींचता है नेत्रहीन संतोष

मधुबनी। अशोक चक्रधर की एक कविता है - आवाज देकर रिक्शे वाले को बुलाया, वो कुछ लंगड़ाता हुआ आया। मैंने पूछा - यार, पहले ये तो बतलाओ, पैर में चोट है कैसे चलाओगे?  रिक्शेवाले ने कहा - बाबूजी, रिक्शा पैर से नहीं, पेट से चलता है। मगर, बिहार के बेनीपंट्टी का संतोष तो इस तर्जुमे से भी आगे निकल गया है। वह दोनों आंखों से अंधा है और परिवार के पेट की खातिर छोटे भाई के साथ रिक्शा खींच रहा है। वह पैडल मारता है और उसका छोटा भाई हैंडल संभालता है। यह एक इंसान के जीवन के प्रति असीम उत्साह की कहानी तो है ही, जीवन के किसी भी मोड़ पर हार को स्वीकार नहीं करने का संदेश भी देती है। मधुबनी जिले के बेनीपट्टी ब्लॉक के कछड़ा गांव के बसवरिया टोला निवासी इन भाइयों में नेत्रहीन संतोष राम की उम्र 16 साल और राजू महज 12 वर्ष का है। गरीबी की मार और पिता की बीमारी से त्रस्त होकर दोनों भाइयों ने रिक्शा चलाने का फैसला किया। दोनों आंखों से नेत्रहीन संतोष रिक्शा की चालक सीट पर बैठ कर दोनों पांवों से पैंडल मारता है और उसके आगे बैठकर छोटा भाई राजू राम हैंडल व ब्रेक संभालता है। दोनों रिक्शा लेकर सुबह से ही मुसाफिरों की खोज में निकल पड़ते हैं। अकौर बेनीपट्टी और बनकट्टा की पांच किलोमीटर की परिधि में इन्हें रिक्शा चलाते देखा जा सकता है। लोगों की सहानुभूति भी इनके साथ होती है। कहीं आने-जाने के लिए सबसे पहले लोग इन्हें ही तलाश करते हैं। मां जया देवी कहती हैं कि संतोष के पिता मोहित राम पांच साल से टीबी से पीडि़त होकर मौत से जूझ रहे हैं। उनके बीमार पडऩे पर तीन भाइयों, पांच बहनों और माता-पिता की देखभाल का भार संतोष के कंधे पर आ पड़ा। संतोष ने हिम्मत नहीं हारी। उसने छोटे भाई की मदद से परिवार की गाड़ी खींचने का अदम्य साहस दिखाया और परिवार की परवरिश में जुट गया। रोटी-कपड़ा के साथ-साथ पिता का इलाज भी संतोष के लिए चुनौती थी। उसने इसे स्वीकारा। इसमें उसने अपनी लाचारी को आड़े नहीं आने दिया। पिता को बैंक ऋण के रूप में मिले रिक्शे को दोनों भाई एक साल से चला रहे हैं। 
साभार : - आमोद कुमार झा, जागरण

Sunday, August 29, 2010

सरहद पर बंधी रिश्तों की डोर

-भारत-पाक सीमा पर बहनों ने बांधी सैनिक भाइयों के राखी, भावुक हुए सैनिक - भर आई अखियां
श्रीगंगानगर।      सरहद पर बंदूकों के साए में प्रेम की कामना करना भी बेमानी लगता है, लेकिन इस बार रक्षाबंधन पर्व पर भाई-बहन के प्रेम भरे अटूट रिश्ते ने यहां ऐसा प्रेममयी माहौल पैदा किया कि हर कोई भावुक हो उठा। खून से सनने वाले मैदान पर खुशी के आंसू टपके तो घृणा की जगह प्यार प्रफुल्लित हुआ। जी हां, हम बात कर रहे हैं भारत-पाकिस्तान की सरहदी चौकी हिंदुमलकोट की, जहां इस बार रक्षाबंधन का पर्व बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाया गया। श्रीगंगानगर व हिंदुमलकोट से पहुंची अनेक युवतियों ने सरहद पर पहुंचकर सैनिक भाईयों की कलाइयों पर राखी बांधी और उनकी दीर्घायु की कामना की। वहीं सैनिक भाइयों ने भी बहनों, उनके सुहाग व देश की रक्षा की शपथ ली। 




श्रीगंगानगर से महज 20 किलोमीटर दूर हिंदुमलकोट सरहद चौकी पर रक्षाबंधन पर्व पर कई युवतियां विशेष रूप से सैनिकों के राखियां बांधने पहुंची। हाथों में पूजा की थाल व राखियां लिए जब ये बहनें सैनिक भाइयों तक पहुंची तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। अक्सर हाथों में बंदूक थामे सैनिक भाईयों ने कल्पना ही नहीं की थी कि उनकी ये अनजान बहनें यूं राखी बांधने पहुंच जाएंगी। पर जैसे ही इन बहनों ने सैनिकों के राखी बांधी तो माहौल एकबारगी भावुकता से भर उठा और सैनिकों की आंखे भर आई। यहां पहुंची युवतियां भी सैनिकों के इस स्नेह व प्यार तथा घर से दूर रहने के दर्द को देख अपने आंसू नहीं रोक पाई। बोर्डर पर राखी बांधने पहुंची अशोकनगर निवासी रश्मी अरोड़ा ने इन भावुक पलों के बीच बताया कि उसका कोई भाई नहीं है और इसी कारण वह सैनिक भाईयों को राखी बांधने आई है। उन्होंने कहा कि सैनिक भाईयों से बढ़कर शायद ही कोई भाई हो जो हमारी और हमारे देश की रक्षा कर सके। ऐसे ही प्रीति ने कहा कि सैनिकों का घर, परिवार हम ही तों है और इसलिए हर बार इन्हें राखी बांधने आएंगी। हिंदुमलकोट की रीना का भी यही मानना है, वे कहती हैं कि यदि सैनिक भाई हमारी रक्षा की खातिर घर से इतनी दूर बैठे हैं तो हमारा भी फर्ज बनता है कि हम इन सच्चे व वीर भाईयों की कलाइयों पर राखी सजाएं। भावुक हुए सैनिक भी इन बहनों के स्नेह को पाकर बेहद खुश थे। उन्होंने कहा कि  घर से दूर होने के बावजूद आज उन्हें घर की कमी नहीं खल रही। सैनिकों ने कहा कि यदि हर वर्ष, हर त्यौहार पर ऐसा माहौल हर बोर्डर चौकी पर हो तो उनके हौसलो को चार चांद लग जाएंगे। 


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Wednesday, June 2, 2010

मां तूझे सलाम

सुरमाओं की धरा हिंदुस्तान के सैनिक जहां सरहदों पर दुश्मन के छक्के छुड़वाते हैं, वहीं उनके होनहार नन्हे-मुन्ने सपूत भी किसी से कम नहीं  है। वे यदा-कदा मौका मिलने पर खुद की काबलियत को पेश कर ही देते हैं। ऐसा ही एक सुनहरा व रंगारंग मौका उन्हें राजस्थान के श्रीगंगानगर जिले में स्थित साधुवाली सैन्य छावनी में मिला। बस, फिर क्या था.........यहां इन लाडलों ने ऐसा रंग जमाया कि देखने वालों ने दांतो तले अंगूली दबा ली। निश्चित ही उन्होंने सरहद पर सीना तान खड़े अपने रणबांकुरे पिता को गौरवांवित कर दिया।
कार्यक्रम का आयोजन राजस्थान की स्पेशल 13 गर्नेडियर गंगा जैसलमेर की ओर से किया गया। जिसमें सैन्य कर्मियों के नन्हे-मुन्ने बच्चों ने धूम मचा दी। यहां प्रस्तुत राजस्थानी झांकी को हर कोई निहारने पर मजबूर हो गया। फिर वो चाहे चरखा चलाती सोहणी मुटियार हो या ऊंट पर बैठा गबरू, या फिर चूल्हे पर खाना बनाती गजबण नार या चौपाल में हथाई करते बुजुर्गवार। इस पर राजस्थानी परिधान में सजे सैन्य कर्मियों ने चंग के थापों से राजस्थानी खुशबू का अहसास बखूबी दिलाया। इन्हीं दिलकश नजारों को देखिए कैमरे की नजरों से .....






Wednesday, May 26, 2010

देखा है भीड़ को

देखा है भीड़ को ढोते हुए 
अनुशासन का बोझा,
उछालते हुए अर्थहीन नारे, 
लड़ते हुए दूसरों का युद्ध।
खोदते हुए अपनी कब्रें, 

पर .....नहीं सुना .....

तोड़ लिया हो 
कभी किसी भीड़ ने व्यक्ति की अंत:स्चेतना में खिला
अनुभूति का आम्लान पारिजात.....




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Friday, May 21, 2010

विकासशील नहीं, आज हम विकसित होते


                      -पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की पुण्यतिथि पर विशेष आलेख
भारत के सबसे युवा व नौवें प्रधानमंत्री राजीव गांधी के न होने का खामियाजा आज हम इस रूप में भुगत रहे हैं कि हमारा देश अब भी विकासशील देशों की श्रेणी में खड़ा जद्दोजहद कर रहा है। यदि राजीव गांधी हमारे बीच होते तो निश्चित ही देश विकसित देशों की फेहरिस्त में शामिल होता। देश के इस सपूत व बेहद मृदु भाषी व्यक्तित्व के धनी प्रधानमंत्री को हमने आज ही के दिन खो दिया था। उनकी तमिलनाडु के श्रीपेरंबदूर में एक चुनावी सभा के दौरान विस्फोट से हत्या कर दी गई थी। यह दसवीं लोकसभा के लिए चुनाव प्रचार का समय था, जो निहित ही स्वार्थी नेताओं द्वारा देश के माथे पर थोंपा गया।  देश के इस युवा नेता के लिए 23 जून 1980 का दिन बेहद उथल-पुथल व परिवर्तन लेकर आया। दरअसल, छोटे भाई संजय गांधी की विमान हादसे में मौत और मां इंदिरा गांधी का राजनीति में आने का आदेश मिलने के बाद न चाहते हुए भी राजनीति में कूदे थे। संजय गांधी शुरुआत से ही राजनीति में रुचि रखते थे, जबकि राजीव गांधी राजनीति से कोसों दूर थे। मुंबई में जन्मे और दून स्कूल से प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण की। इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए वर्ष 1961 में लंदन का रुख किया। इसी दौरान वर्ष 1965 में सोनिया गांंधी से मुलाकात के बाद 1968 में उनसे शादी की। इसी बीच वे इंडियन एयर लाइंस में बतौर पायलट सेवा देने लगे। लेकिन संजय गांधी की आकस्मिक मौत के बाद उन्हें 1981 में अमेठी से पहला चुनाव लडऩा पड़ा और शरद यादव को करीब दो लाख मतों से हराते हुए रिकॉर्ड जीत हासिल की। वर्ष 1984 में उन्होंने मेनका गांधी को इसी सीट से हराया। यहां से लोकसभा पहुंचने के बाद उनकी राजनीतिक सक्रियता शुरू हो चुकी थी और उनकी छवि बेहद सौम्य, अविचल मुस्कान व मृदु भाषी वाली बनती गई। वे कांग्रेस महासचिव भी बने और राजनीतिक पारंगत्ता का परिचय देते हुए उन्होंने श्रीमति इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद लोकसभा चुनाव समय पूर्व करवाए। जबकि वे निर्वाचित सदस्य भी थे और कांग्रेस के पास पूर्ण बहुमत था। उनकी सूझबूझ का नतीजा यह था कि भारत के इतिहास में कांग्रेस ने 542 में से 411 सीटें जीतकर एक नया रिकार्ड बनाया और देश के प्रथम युवा प्रधानमंत्री के रूप में हमें राजीव गांधी मिले। वे 31 अक्टूटर 1984 से दो दिसंबर 1989 तक प्रधानमंत्री पद पर रहे। जिस संचार क्रांति पर आज हम और पूरा भारत देश हुंकार भरता है, उसे भारत स्थली पर खड़ा करने का श्रेय इन्हीं युगदृष्टा को जाती है। बकौल गांधी, 'मैं युवा हूं और मेरे कुछ सपने हैं, जिनमें सबसे बड़ा स्वप्न यह है कि मेरा देश स्वतंत्र, सशक्त और आत्मनिर्भरता के साथ मानवता की सेवा करने वाला अग्रणी राष्ट्र हो।' शायद यही वजह थी कि उन्होंने एक एतिहासिक निर्णय लेते हुए मतदान की निर्धारित न्यूनतम आयु सीमा 21 वर्ष को घटाकर 18 वर्ष किया, जो निश्चित ही देश के युवाओं के लिए सौगात थी। युवा सोच के मद्देनजर ही उन्होंने देश में कंप्यूटर क्रांति को जन्म दिया और आज देश में ऑफिस से लेकर घरों तक ही नहीं बल्कि सड़कों पर लैपटोप नुमा कंप्यूटर के साथ देश प्रगति के सौपानों को छू रहा है। यही नहीं उन्होंने भ्रष्टाचार के खात्मे को लेकर भी विशेष रणनीति अख्तियार की, लेकिन उसे अमली जामा नहीं पहनाया जा सका। निसंदेह राजीव गांधी एक ऐसे शासनाध्यक्ष थे जिन्होंने सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने का साहस किया और माना कि जनकल्याण के लिये केंद्र से भेजे गये एक रूपये में से 87 पैसे भ्रष्ट तंत्र की भेंट चढ़ जाता है। उधर तत्कालीक समय में आतंक भी सर चढ़ कर बोल रहा था। पंजाब से लेकर असम तक आतंकवादी गतिविधियां चरम पर थीं। पंजाब में आतंकवाद को लेकर उन्होंने संत हरचरण सिंह लोंगोवाल समझौता किया, जिसकी परिणति आतंकवाद खत्म हो सका। असम में अलग समस्या थी, यहां पंजाबियों और मारवाडिय़ों का स्थानीय लोग विरोध कर रहे थे, लेकिन गांधी ने इस खाई का पाटने का अहम प्रयास किया। लेकिन अंतत: यही आतंकी साया और मानवीय कू्रर रूप ने युवा राजीव  को लील गया। 21 मई 1991 के दिन एक आत्मघाती महिला विस्फोटक ने उन्हें हमसे छीन लिया। निश्चित ही आज देश में उनकी कमी खल रही है, वर्तमान राजनीतिक दुराचार, गिरते स्तर व नेताओं के ओछेपन के चलते देश के लोग उन जैसे प्रधानमंत्री की चाह रखते हैं।



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Wednesday, May 19, 2010

मजहबी कागजो पे नया शोध देखिये...

मजहबी कागजो पे नया शोध देखिये।
वन्दे मातरम का होता विरोध देखिये।
देखिये जरा ये नई भाषाओ का व्याकरण।
भारती के अपने ही बेटो का ये आचरण।
वन्दे-मातरम नही विषय है विवाद का।
मजहबी द्वेष का न ओछे उन्माद का।
वन्दे-मातरम पे ये कैसा प्रश्न-चिन्ह है।
माँ को मान देने मे औलाद कैसे खिन्न है।
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मात भारती की वंदना है वन्दे-मातरम।
बंकिम का स्वप्न कल्पना है वन्दे-मातरम।
वन्दे-मातरम एक जलती मशाल है।
सारे देश के ही स्वभीमान का सवाल है।
आह्वान मंत्र है ये काल के कराल का।
आइना है क्रांतिकारी लहरों के उछाल का।
वन्दे-मातरम उठा आजादी के साज से।
इसीलिए बडा है ये पूजा से नमाज से।
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भारत की आन-बान-शान वन्दे-मातरम।
शहीदों के रक्त की जुबान वन्दे-मातरम।
वन्दे-मातरम शोर्य गाथा है भगत की।
मात भारती पे मिटने वाली शपथ की।
अल्फ्रेड बाग़ की वो खूनी होली देखिये।
शेखर के तन पे चली जो गोली देखिये।
चीख-चीख रक्त की वो बूंदे हैं पुकारती।
वन्दे-मातरम है मा भारती की आरती।
(विरोध करने वालो ने कहा की मुसलमान वंदे-मातरम इसलिए नही गायेंगे क्योंकि उनका मजहब इसके पक्ष में नही है....तब एक प्रश्न जन्म लेता है...की क्या जिन मुसलमानों ने वंदे मातरम गाते गाते अपने प्राण माँ भरती के चरणों में समर्पित कर दिए वो सच्चे मुसलमान नही थे....या जो विरोध कर रहे हैं वो सच्चे मुसलमान नही हैं॥?)

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वन्दे-मातरम के जो गाने के विरुद्ध हैं।
पैदा होने वाली ऐसी नसले अशुद्ध हैं।
आबरू वतन की जो आंकते हैं ख़ाक की।
कैसे मान लें के वो हैं पीढ़ी अशफाक की।
गीता ओ कुरान से न उनको है वास्ता।
सत्ता के शिखर का वो गढ़ते हैं रास्ता।
हिन्दू धर्म के ना अनुयायी इस्लाम के।
बन सके हितैषी वो रहीम के ना राम के।
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गैरत हुज़ूर कही जाके सो गई है क्या।
सत्ता माँ की वंदना से बड़ी हो गई है क्या।
देश तज मजहबो के जो वशीभूत हैं।
अपराधी हैं वो लोग ओछे हैं कपूत हैं।
माथे पे लगा के माँ के चरणों की ख़ाक जी।
चढ़ गए हैं फांसियों पे लाखो अशफाक जी।
वन्दे-मातरम कुर्बानियो का ज्वार है।
वन्दे-मातरम जो ना गए वो गद्दार है। 

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Tuesday, May 18, 2010

शिव मंदिर 'तेजो महालय' या मुमताज का मकबरा 'ताजमहल'

श्रीगंगानगर। बचपन से ही सुनते आए हैं कि देश की सबसे खूबसूरत इमारत 'ताजमहल' को शाहजहां ने अपनी बेगम मुमताज की याद में बनवाया है। स्कूल किताबें हों या समाचार-पत्रों के पन्ने हर जगह यही तथ्य सामने आया है। प्रो.पीएन ओक को छोड़ कर किसी ने कभी भी इस कथन को चुनौती नही दी कि 'ताजमहल शाहजहां ने बनवाया था। निश्चित ही प्रो. ओक की दामों में कुछ दम है और यदि ये सही हैं तो इस पर हर भारतीय को गौर करना चाहिए तथा उस छुपे हुई हकीकत और तथ्य को दुनिया के सामने लाना चाहिए। प्रो.ओक. अपनी पुस्तक 'TAJ MAHAL - THE TRUE STORY' द्वारा इस बात में विश्वास रखते हैं कि सारा विश्व इस धोखे में है कि खूबसूरत इमारत ताजमहल को मुग़ल बादशाह शाहजहां ने बनवाया था। ओक कहते हैं कि ताजमहल प्रारम्भ से ही बेगम मुमताज का मकबरा न होकर, एक हिंदू प्राचीन शिव मन्दिर है जिसे तब 'तेजो महालय' कहा जाता था। अपने अनुसंधान के दौरान ओक ने खोजा कि इस शिव मन्दिर को शाहजहाँ ने जयपुर के महाराज जयसिंह से अवैध तरीके से छीन लिया था और इस पर अपना कब्ज़ा कर लिया था। ओक के अनुसार शाहजहां के दरबारी लेखक मुल्ला अब्दुल हमीद लाहौरी ने अपने 'बादशाहनामा' में मुग़ल शासक बादशाह का सम्पूर्ण वृतांत 1000 से ज़्यादा पृष्ठों मे लिखा है। जिसके खंड एक के पृष्ठ 402 और 403 पर इस बात का उल्लेख है कि, शाहजहां की बेगम मुमताज-उल-जमानी जिसे मृत्यु के बाद, बुरहानपुर मध्य प्रदेश में अस्थाई तौर पर दफना दिया गया था और इसके 06 माह बाद, तारीख 15 जमदी-उल-ओवल दिन शुक्रवार,को अकबराबाद आगरा लाया गया। फिर उसे महाराजा जयसिंह से लिए गए, आगरा में स्थित एक असाधारण रूप से सुंदर और शानदार भवन (इमारते आलीशान) मे पुन: दफनाया गया। लाहौरी के अनुसार राजा जयसिंह अपने पुरखों कि इस आली मंजिल से बेहद प्यार करते थे ,पर बादशाह के दबाव मे वह इसे देने के लिए तैयार हो गए थे। इस बात कि पुष्टि के लिए यहां ये बताना अत्यन्त आवश्यक है कि जयपुर के पूर्व महाराज के गुप्त संग्रह में वे दोनो आदेश अभी तक रक्खे हुए हैं जो शाहजहां द्वारा ताज भवन समर्पित करने के लिए राजा जयसिंह को दिए गए थे.......
यह सभी जानते हैं कि मुस्लिम शासकों के समय प्राय: मृत दरबारियों और राजघरानों के लोगों को दफनाने के लिए, छीनकर कब्जे में लिए गए मंदिरों और भवनों का प्रयोग किया जाता था। उदाहरनार्थ हुमायूं, अकबर, एतमाउददौला और सफदर जंग ऐसे ही भवनों मे दफनाये गए हैं .... प्रो. ओक कि खोज ताजमहल के नाम से प्रारम्भ होती है---------
''महल' शब्द, अफगानिस्तान से लेकर अल्जीरिया तक किसी भी मुस्लिम देश में भवनों के लिए प्रयोग नही किया जाता। यहां यह व्याख्या करना कि महल शब्द मुमताज महल से लिया गया है......वह कम से कम दो प्रकार से तर्कहीन है। पहला --शाहजहाँ कि पत्नी का नाम मुमताज महल कभी नही था, बल्कि उसका नाम मुमताज-उल-ज़मानी था। और दूसरा --किसी भवन का नामकरण किसी महिला के नाम के आधार पर रखने के लिए केवल अन्तिम आधे भाग (ताज)का ही प्रयोग किया जाए और प्रथम अर्ध भाग (मुम) को छोड़ दिया जाए, यह समझ से परे है। प्रो.ओक दावा करते हैं कि, ताजमहल नाम तेजो महालय (भगवान शिव का महल) का बिगड़ा हुआ संस्करण है। साथ ही साथ ओक कहते हैं कि-- मुमताज और शाहजहां कि प्रेम कहानी,चापलूस इतिहासकारों की भयंकर भूल और लापरवाह पुरातत्वविदों की सफ़ाई से स्वयं गढ़ी गई कोरी अफवाह मात्र है क्योंकि शाहजहां के समय का कम से कम एक शासकीय अभिलेख इस प्रेम कहानी की पुष्टि नही करता है। इसके अतिरिक्त बहुत से प्रमाण ओक के कथन का प्रत्यक्षत: समर्थन कर रहे हैं..... तेजो महालय (ताजमहल) मुग़ल बादशाह के युग से पहले बना था और यह भगवान् शिव को समर्पित था तथा आगरा के राजपूतों द्वारा पूजा जाता था। ओक के अनुसार न्यूयार्क के पुरातत्वविद प्रो. मर्विन मिलर ने ताज के यमुना की तरफ़ के दरवाजे की लकड़ी की कार्बन डेटिंग के आधार पर 1985 में यह सिद्ध किया कि यह दरवाजा सन् 1359 के आसपास अर्थात् शाहजहाँ के काल से लगभग 300 वर्ष पुराना ह। मुमताज कि मृत्यु जिस वर्ष (1631) में हुई थी उसी वर्ष के अंग्रेज भ्रमण कर्ता पीटर मुंडी का लेख भी इसका समर्थन करता है कि ताजमहल मुग़ल बादशाह के पहले का एक अति महत्वपूर्ण भवन था। यूरोपियन यात्री जॉन अल्बर्ट मैनडेल्स्लो ने सन् 1638 (मुमताज कि मृत्यु के 07 साल बाद) में आगरा भ्रमण किया और इस शहर के सम्पूर्ण जीवन वृत्तांत का वर्णन किया,,परन्तु उसने ताज के बनने का कोई भी सन्दर्भ नही प्रस्तुत किया,जबकि भ्रांतियों मे यह कहा जाता है कि ताज का निर्माण कार्य 1631 से 1651 तक जोर शोर से चल रहा था। फ्रांसीसी यात्री फविक्स बर्निअर एम.डी. जो औरंगजेब द्वारा गद्दीनशीन होने के समय भारत आया था और लगभग दस साल यहाँ रहा,के लिखित विवरण से पता चलता है कि,औरंगजेब के शासन के समय यह झूठ फैलाया जाना शुरू किया गया कि ताजमहल शाहजहाँ ने बनवाया था। प्रो. ओक बहुत सी आकृतियों और शिल्प सम्बन्धी असंगताओं को इंगित करते हैं जो इस विश्वास का समर्थन करते हैं कि,ताजमहल विशाल मकबरा न होकर विशेषत: हिंदू शिव मन्दिर है। आज भी ताजमहल के बहुत से कमरे शाहजहाँ के काल से बंद पड़े हैं, जो आम जनता की पहुँच से परे हैं। प्रो. ओक जोर देकर कहते हैं कि हिंदू मंदिरों में ही पूजा एवं धार्मिक संस्कारों के लिए भगवान् शिव की मूर्ति, त्रिशूल, कलश आदि वस्तुएं प्रयोग की जाती हैं। ताज महल के सम्बन्ध में यह आम किवदंत्ती प्रचलित है कि ताजमहल के अन्दर मुमताज की कब्र पर सदैव बूंद बूंद कर पानी टपकता रहता है। यदि यह सत्य है तो पूरे विश्व मे किसी भी कब्र पर बूँद बूँद कर पानी नही टपकाया जाता, जबकि प्रत्येक हिंदू शिव मन्दिर में ही शिवलिंग पर बूंद बूंद कर पानी टपकाने की व्यवस्था की जाती है। फिर ताजमहल (मकबरे) में बूंद बूंद कर पानी टपकाने का क्या मतलब....????
प्रो. पीएन ओक के अनुसंधान को ग़लत या सिद्ध करने का केवल एक ही रास्ता है कि वर्तमान केन्द्र सरकार बंद कमरों को संयुक्त राष्ट्र के पर्यवेक्षण में खुलवाए और अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों को छानबीन करने दे।
जऱा सोचिये....!!!!!!
कि यदि ओक का अनुसंधान पूर्णतय: सत्य है तो किसी देशी राजा के बनवाए गए संगमरमरी आकर्षण वाले खूबसूरत, शानदार एवं विश्व के महान आश्चर्यों में से एक भवन, 'तेजो महालय' को बनवाने का श्रेय बाहर से आए मुग़ल बादशाह शाहजहां को क्यों......?????
तथा....... इससे जुड़ी तमाम यादों का सम्बन्ध मुमताज-उल-ज़मानी से क्यों........???????
आंसू टपक रहे हैं, हवेली के बाम से.....
रूहें लिपट के रोती हैं हर खासों आम से.....
अपनों ने बुना था हमें, कुदरत के काम से....
फिऱ भी यहां जिंदा हैं हम गैरों के नाम से......  

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Thursday, May 6, 2010

ऐसा देश है मेरा: तो फिर मरना क्या हैं ?

ऐसा देश है मेरा: तो फिर मरना क्या हैं ?

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तो फिर मरना क्या हैं ?

शहर की इस दौड में दौड के करना क्या है ? ? ? ? ? ?

अगर यही जीना हैं दोस्तों........ तो फिर मरना क्या हैं ?

पहली बारिश में ट्रेन लेट होने की फ़िकर हैं......
भूल गये भींगते हुए टहलना क्या हैं ? ? ? ? ? ?

सीरियल के सारे किरदारो के हाल हैं मालुम......
पर माँ का हाल पूछ्ने की फ़ुरसत कहाँ हैं ! ! ! ! ! ! ! !

अब रेत पर नंगे पैर टहलते क्यों नहीं.......
१०८ चैनल हैं पर दिल बहलते क्यों नहीं ! ! ! ! ! ! ! !

इंटरनेट पे सारी दुनिया से तो टच में हैं.........
लेकिन पडोस में कौन रहता हैं जानते तक नहीं ! ! ! ! ! ! ! ! !

मोबाईल, लैंडलाईन सब की भरमार हैं........
लेकिन ज़िगरी दोस्त तक पहुंचे ऐसे तार कहाँ हैं !! ! ! ! ! ! !

कब डूबते हुए सूरज को देखा था याद हैं ?? ? ? ? ? ?
कब जाना था वो शाम का गुजरना क्या हैं !! ! ! ! ! !

तो दोस्तो इस शहर की दौड में दौड के करना क्या हैं?? ? ? ? ? ? ?
अगर यही जीना हैं तो फिर मरना क्या हैं ! ! ! ! ! ! !

Wednesday, April 21, 2010

दौर ...

जो बीत गया है वो, अब दौर न आएगा,
इस दिल में सिवा तेरे कोई और न आएगा।
तू साथ न दे मेरा चलना मुझे आता है,
हर आग से वाकिफ हूं जलना मुझे आता है।
ये जीवन का पुतला जल जाए भी तो क्या,
मरने के लिए ऐसा कोई दौर न आएगा। 

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Tuesday, March 30, 2010

शवों के सौदागर!

श्रीगंगानगर। एक हम हैं कि देश को फिर से सोने की चिडिय़ा बनता देखना चाहते हैं और एक ये सरकारी कारिंदे जो देश को बार-बार कलंकित कर रहे हैं। फर्क बस इतना है कि हर बार चेहरा बदला होता है लेकिन हरकतें वही होती हैं। बेहद अफसोस होता है कि मेरे ऐसे देश में 'ऐसे' लोग भी हैं। दरअसल, राजस्थान के उत्तरी छोर पर स्थित राज्य के ग्रीन बैल्ट जिला श्रीगंगानगर में शवों के खरीद-फरोख्त का मामला प्रकाश में आया है और इसके साथ ही पकड़ में आए हैं कई सरकारी सौदागर। खाकी में छिपे इन सौदागरों के खिलाफ अब विभागीय कार्रवाई की जा रही है तथा कई कर्मियों को लाइन हाजिर कर दिया गया है। लेकिन इंसानियत को शर्मसार करने वाले इस खुलासे के बाद हर कोई सकते में है, वहीं पुलिस अधिकारियों व कर्मचारियों में खलबली मची हुई है। बताया जाता है कि अभी कई और पुलिस कर्मियों व मेडिकल कॉलेज संचालकों के नाम सामने आ सकते हैं। मामले के अनुसार, पिछले वर्ष भाजपा नेता राजकुमार सोनी के युवा पुत्र राहुल सोनी की संदिग्धवस्था में मौत हो गई थी। राहुल को बेहोशी की हालत में शहर के नेहरू पार्क से एम्बुलेंस के जरिए सिविल हॉस्पीटल में भर्ती करवाया गया था, जहां उसे डॉक्टरों ने मृत घोषित कर दिया। इसके बाद पुलिस ने बिना किसी शिनाख्त कार्रवाई के राहुल के शव को शहर के टांटिया मेडिकल कॉलेज को सौंप दिया। उधर मृतक के पिता को खोजबीन के दौरान पता चला कि उनके बेटे का शव मेडिकल कॉलेज को सौंप दिया गया है तो उन्होंने एतराज जताया, जिसके बाद कॉलेज प्रबंधन ने शव को परिजनों को वापिस लौटा दिया। इसके साथ ही राहुल के पिता ने पुलिस के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और उन्होंने सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत लावारिस शवों को लेकर विभिन्न जानकारियां मांगी। इन्हीं सूचनाओं में खुलासा हुआ कि पुलिस ने वर्ष 2006 से लेकर 2009 तक लावारिस शवों को निर्धारित नियम-कायदों की अवहेलना करते हुए निजी मेडिकल कॉलेजों को दे डाले। राहुल के पिता का आरोप है कि पुलिस ने इन शवों को हजारों से लाखों रुपयों के बीच बेचा। मामले की जानकारी मिलते ही पुलिस अधीक्षक उमेशचंद्र दत्ता ने निर्धारित प्रक्रिया की अनदेखी करने वाले चार सहायक उप निरीक्षक व एक हवलदार को 16 सीसी की चार्जशीट जारी कर दी। वहीं उक्त लोगों को लाइन हाजिर कर दिया है। यही नहीं तत्कालीन निरीक्षकों, छह उपनिरीक्षकों के खिलाफ भी कार्रवाई के लिए पुलिस महानिरीक्षक के समक्ष रिपोर्ट भेजी गई है। उधर यह मामला दो दिनों से विधानसभा में भी गूंज रहा है। इसके बाद गृह मंत्री ने इस मामले में निष्पक्ष जांच का आश्वासन दिया है। सूत्रों के अनुसार पुलिस अधीक्षक दत्ता ने सहायक निरीक्षक भगवंतससिंह, सुखराम, खींवदान, सुभाष बिश्नोई व हवलदार जयकुमार भादू को चार्जशीट दी है। इसके अलावा वर्ष 2006 से 2009 के दौरान कोतवाली के प्रभारी रहे निरीक्षक रायसिंह बेनीवाल, नरेंद्र कुमार शर्मा, अश्विनी शर्मा व उपनिरीक्षक भानीसिंह, अवतारसिंह, कृष्ण कुमार, धर्मसिंह व अनिल मूंड के खिलाफ कार्रवाई की अनुशंसा आईजी से की है। यही नहीं अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक राजन दुष्यंत व महेंद्र हिंगोनिया के नेतृत्व में टीम गठित कर सभी थानों की जांच के आदेश भी दिए हैं। यह टीम सभी पच्चीस थानों में दस साल के दौरान मेडिकल कॉलेजों को सौंपे गए शवों के मामलों की जांच करेगी। कार्रवाई की तत्परता का अंदाजा यहीं से लगाया जा सकता है कि एसपी ने महज तीन दिन में रिपोर्ट पेश करने के आदेश दिए हैं। हालांकि सूत्र बताते हैं कि सभी थानों में से शहर के कोतवाली, जवाहरनगर, सदर व पुरानी आबादी थानों से सर्वाधिक शव मेडिकल कॉलेजों को सौंपे गए। उधर इस कार्रवाई के बाद पुलिस के अन्य अधिकारियों व कर्मियों में खलबली मची हुई हैं। क्योंकि उक्त जांच के बाद करीब दर्जन भर और कर्मियों के खिलाफ कार्रवाई हो सकती है। जानकार बताते हैं कि लावारिस शव को सरकारी मेडिकल कॉलेज को शिक्षण कार्य के लिए सौंपा जा सकता है। इसके लिए बकायदा नियम निर्धारित हैं। खास बात यह है कि निजी मेडिकल कॉलेज शव को जरूरत होने पर सरकारी मेडिकल कॉलेज के मार्फत पुलिस से ले सकते हैं। लेकिन पता चला है कि अकेली कोतवाली पुलिस ने वर्ष 2006 से 2009 के दौरान 15 शवों को टांटिया मेडिकल कॉलेज व सुरेंद्रा डेंटल कॉलेज को सौंप दिया। पुलिस ने शवों के शिनाख्त के लिए इंतजार तक नहीं किया और राजस्थान एनोटोमिकल एक्ट के नियमों की पालना भी नहीं की।
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Thursday, February 18, 2010

वतन बेच देगें।

कली बेच देगें चमन बेच देगें,
धरा बेच देगें गगन बेच देगें,
कलम के पुजारी अगर सो गये तो
ये धन के पुजारी
वतन बेच देगें।



जयराम “विप्लव” { jayram"viplav" }
http://www.janokti.com/

Monday, February 15, 2010

कहीं खून पानी तो नहीं बन गया?

सत्याग्रहों की नौटंकी के बीच सत्याग्रह पर अटल हकीकत की इरोम

देशवासी महात्मा गांधी, गौतम बुद्ध और महावीर जैसे अहिंसावादियों की छवि को धूमिल करने को आतुर हैं और वे जाने-अनजाने उन सफेदपोश कुकरमुतों का साथ दे रहे हैं, जो देश को दीमग की तरह खोखला कर रहे हैं। बड़ी-बड़ी बातें करने वाला लोकतंत्र का कथित चौथा स्तंभ भी नौटंकियां करने में मशगूल है, जबकि देश दिनों-दिन गर्त में जा रहा है। इन सबसे किसी भी तरह की उम्मीद करना ही बेमानी है, क्योंकि किसी को ज़रा सी लज्जा होती तो आज मणिपुर के एक अदने से हॉस्पीटल में सत्याग्रह की मिसाल बन चुकी इरोम शर्मिला यूं ना तड़प रही होती। हैरत की बात है कि आज इरोम शर्मिला जिंदगी व मौत की जंग लड़ रही है और उसने सत्याग्रह को कागज के पन्नों व भाषणों से बाहर कर हकीकत का अमली जामा पहनाया है। लेकिन अफसोस है की आज सत्याग्रह के कोई मायने नहीं रहे और सत्याग्रह पर राजनीतिक रोटियां सेकने वालों के पौ-बारह पच्चीस है।

जी हां, हम बात कर रहे हैं मणिपुर की उस इरोम शर्मिला की जो वर्ष 2000 से अनशन पर बैठी है और महज प्लास्टिक की पाईप के भरोसे जिंदा है। भले ही वह गांधी की तरह अटल व अडिग़ है, लेकिन गांधी के नुमाइंदों के पास उसके लिए तनिक भी समय नहीं है और न ही है उनके पास वो जि़गरा जो गांधी के दूसरे नाम यानी श्रीमति इंदिरा गांधी के पास था। दस वर्षों से अनवरत संघर्ष की लौ जला रही इस महिला के लिए न तो महिला संगठन आगे आ रहे हैं और न ही इंसानियत का जामा पहनने वाले मानवाधिकार संगठन। पर लगता है, उस अंधेरी रात को उजली सुबह की किरण शायद ही कभी नसीब हो, क्योंकि जिस देश का बच्चा देशभक्ति की बजाए सेक्स शिक्षा ग्रहण करता हो वहां संवेदना, इंसानियत, अपनेपन की बातें करना ही बेमानी होगी।




दरअसल, अशांत व उग्रवाद से दनदनाते मणिपुर में वर्ष 1980 से सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम [एएफएसपीए] 1958 लागू किया गया है। इस अधिनियम के तहत सेना को बल प्रयोग करने, बिना वारंट के किसी के घर में घुसकर तलाशी लेने, किसी भी वक्त कोई सर्च कार्रवाई करने, किसी को भी बिना सबूत केवल संदेह के आधार पर गिरफ्तार करने व गोली मारने की छूट दी जाती है। यही नहीं कार्रवाई करने वाले सेना-पुलिस कर्मी के खिलाफ केंद्र सरकार की अनुमति के बिना कोई न्यायिक कार्रवाई नहीं हो सकती। इसी छूट का फायदा जायज-नाजायज तौर पर उठाया जा रहा है। मणिपुर में आतंकवाद के साथ सरकारी कहर भी जारी है। भारत छोड़ों आंदोलन के दिनों जो हालात देशभर में थे वे आज मणिपुर में हैं। इरोम शर्मिला इसी तानाशाही रवैये को बयां करते अधिनियम के खिलाफ है और वो इसे हटाने की मांग को लेकर अनशन पर है, जिसे चार नवंबर 2009 को एक दशक बीत गया। इरोम शर्मिला यानी लोहस्त्री, जिसका जन्म 14 मार्च 1972 को मणिपुर के छोटे से कस्बे में हुआ। बेहद होनहार व छरहरी काया वाली ईरोम लेखन में रुचि रखती थी और इस कारण उसने पत्रकारिता में कोर्स किया तथा इसके बाद वह एक स्थानीय अखबार में नियमित कॉलम भी लिखती रही। इरोम के युवाकाल के दिनों मणिपुर विद्रोह की आग में झुलस रहा था, जो अब तक जारी है। इसी बीच एक नवंबर 2000 को असम के दो विद्रोही संगठनों के बीच हुए एक हमले से आहत स्थानीय बटालियन ने मालोम बस स्टैंड पर करीब दस बेकसूर लोगों को मार गिराया। अगले दिन समाचार पत्रों में जो भयावह तस्वीरें प्रकाशित हुईं, उनमें वर्ष 1988 में राष्ट्रपति से वीरता पुरस्कार प्राप्त कर चुकी 18 वर्षीय सिनम चंद्रमणी का बदहाल शव था। उसके अलावा 62 वर्षीय वृद्ध महिला लिसेंगबम इबेतोमी सहित आठ और क्षत-विक्षत शव भी थे। इन्हें देखकर बदहवास हुई युवा इरोम चुन्नु शर्मिला खुद का संभाल नहीं पाई और चार नवंबर 2000 से राष्ट्रपिता गांधी के कदम चिन्हों पर चलते हुए सत्याग्रह शुरू कर दिया। हालांकि उसे उस दिन आभास नहीं था कि अब न तो गांधी जी हैं और न गांधी के नक्शेकदम चलने वालों का कोई शागिर्द। चौंकाने वाली बात है कि गांधी के इस देश में युवा शर्मिला को किसी का साथ तो नहीं मिला, बल्कि फिरंगियों की तानाशाही के मानिद उसे आत्महत्या के आरोप में दो दिन बाद ही गिरफ्तार कर सलाखों के पीछे भेज दिया गया। इसके बाद शुरू हुआ सलाखों से छूटने और फिर से पकड़े जाने का, जो अभी तक जारी है। इरोम फिलहाल अपने अनवरत सत्याग्रह के साथ 'एक अरबी' देश को जगाने की जुगत में है...... लेकिन यह मशां कब पूरी होगी कोई नहीं जानता। पर क्या हमें नहीं लगता कि आज हम सब मिलकर इस खामोश आवाज को बुलंद करें? क्या मां दुर्गा, मदर टेरेसा, श्रीमति इंदिरा गांधी, महारानी लक्ष्मीबाई के इस वतन में इरोम पर जुल्म होता रहेगा और सब जुबां रखते हुए भी खामोश रहेंगे? क्या आधुनिकता के दौर में इतने व्यस्त हो चुके हैं कि हमने कर्म, धर्म, निष्ठा, प्रतिष्ठा, संस्कारों और पुरोधाओं को त्याग दिया है? या फिर .........क्या आज वर्ष 1857 वाला खून पानी बन चुका है?

Thursday, February 11, 2010

कौन लड़ेगा सिस्टम के खिलाफ जंग ?

टेनिस खिलाड़ी रुचिका गिल्होत्रा मामले के आरोपी पर चाकू से हमला करने वाले उत्सव को लेकर घरों से लेकर गलियारों तक चर्चा चल पड़ी है कि, क्या यह सिस्टम के खिलाफ जंग है? इस प्रकरण के आरोपी हरियाणा के पूर्व डीजीपी राठौड़ पर हमला होना निश्चित तौर पर एक युवा मन की पीड़ा को उजागर करता है। युवा, जो आज हर मोड़ पर सिस्टम से व्यथित है और बदलाव की बयार चाहता है। कहा जा सकता है कि वर्तमान में देश को एक क्रांतिवीर की जरूरत है, जो सिस्टम के खिलाफ अपनी आवाज तो बुलंद करे ही साथ में जनताजर्नादन को भी जागरूक कर सके। 
हालांकि सिस्टम के खिलाफ लडऩा इतना आसान नहीं है, जितना आज के युवा फिल्में देखकर उद्वेलित होकर कुछ कर गुजरने की ठान लेते हैं। अपने आदर्शो पर चलते हुए सिस्टम से ही जस्टिस की चाह उसे प्रताडऩा, पिटाई, फर्जी मुकदमों तक पहुंचा देती है। अंतत: कोई रास्ता न देख वह कानून को हाथ में लेने के लिए मजबूर होता है। रुचिका गिल्होत्रा केस में भी शायद यही हुआ है। पहले-पहल मीडिया ने इस केस में मीडिया ने जो भूमिका अदा की, वह सराहनीय थी। लेकिन सरकार के रवैये को भांप उत्सव शर्मा के मन मे गुस्सा आना लाजमी था। क्योंकि आरोपी पूर्व डीजीपी राठौड़ को सरकार वीआईपी ट्रीट दे रही थी, जो किसी भी क्रांतिकारी विचारक के लिए सहनीय नहीं हो सकता। बताया जाता है कि उत्सव शर्मा बेहद होनहार व मिलनसार व्यक्तित्व वाला विद्यार्थी रहा है। वह हमेशा से भ्रष्टï सिस्टम के खिलाफ बोलता आ रहा है। उत्सव के पिता प्रोफेसर एसके शर्मा का कहना है कि वह पिछले कई दिनों से तो कुछ ज्यादा ही न्याय-अन्याय की बातें करने लगा था।
भ्रष्ट सिस्टम से आज हर युवा आहत नजर आ रहा है। हालांकि युवाओं के साथ-साथ बुजुर्ग व महिलाएं भी आहत हैं, लेकिन वे खुले तौर पर इस पर ध्यान नहीं देते और न ही ज्यादा चर्चा करते। जबकि भ्रष्ट सिस्टम के कारण सबसे ज्यादा युवा उद्वेलित होते हैं, जिन्हें उत्तेजित करने में फिल्मों का भी अहम रोल रहता है। नायक, क्रांतिवीर, रंग दे बसंती, थ्री इडीयट्य सहित अनेक फिल्में हैं, जिनमें नायक सिस्टम से संघर्ष करता नजर आता है। यही वजह है कि कुछ घटनाएं  सार्वजनिक रूप से देश में हुई, जो सिस्टम के खिलाफ थीं। नागपुर में 25 जनवरी 2004 को न्यायालय के बाहर छोंपड़ी में रहने वाली एक महिला ने  दुष्कर्म के आरोपी पर हमला कर उसे मार गिराया। एक अन्य मामला इसी वर्ष अक्टूबर में हुआ, जो देशभर में चर्चित रहा। नजदीकी गांव के दो मुस्लिम युवक लंबे समय से महिलाओं के साथ छेडख़ानी करते आ रहे थे, जिससे आहत होकर महिलाओं ने इन्हें ऐसा सबक सिखाया कि आज भी अन्य आरोपियों के लिए ये महिलाएं मिसाल बन गईं। हाल ही में उत्सव शर्मा द्वारा डीजीपी पर किया गया अटैक इसी श्रेणी में आता है। जो भी हो, आज ऐसे क्रांतिवीरों की देश को जरूरत है। अन्यथा हम फिर से प्रकाश की ओर से अंधेरे में चले जाएंगे।
क्या है मामला-
मामले के अनुसार हरियाणा का तत्कालीन डीजीपी टेनिस की उभरती हुई खिलाड़ी को विदेश जाने से रोका और उससे अभद्रता की। यही नहीं रुचिका किसी को कोई शिकायत न करे, इसके लिए बकायदा उस पर उसके परिवार पर दबाव बनाया गया। इसके तहत रुचिका के भाई को झूठे मामले में गिरफ्तार तो किया गया ही साथ में रुचिका का स्कूल से नाम कटवा दिया गया। इसके अलावा रुचिका को हर तरह से प्रताडि़त किया गया, जिसके चलते टेनिस की इस होनहार खिलाड़ी ने आत्महत्या कर ली। खास बात यह है कि रुचिका उस समय महज चौदह साल की थी। रुचिका प्रकरण मीडिया की बदौलत हाल ही में सुर्खियों में आया, लेकिन भारत में न जाने ऐसे कितने प्रकरण हर रोज बनते हैं जो सफेदपोशों व नौकरशाहों के नापाक मनसुबों की भेंट चढ़ जाते हैं।

Saturday, January 30, 2010

मौन का सागर

मौन का सागर बना अपार, मैं इस पार - तू उस पार
कहीं तो रोके अहं का कोहरा, कहीं दर्प की खड़ी दीवार
शब्दों की नैया को बाँधे, खड़े रहे मंझधार।
शाख मान की झुकी नहीं, बहती धारा रुकी नहीं
कुंठाओं के गहन भंवर में, छूट गई पतवार
सुनो पवन का मुखरित गान, अवसादों का हो अवसान
संग ले गई स्वप्न सुनहले, खामोशी पतझार
लहरें देती नम्र निमंत्रण, संध्या का स्नेहिल अनुमोदन
अस्ताचल का सूरज कहता, खोलो मन के द्वार



प्रस्तुति - गरिमा बिश्नोई 

अंतिम पल तक तरसी अखियां

अंतिम पल तक तरसी अखियां

Monday, January 25, 2010

मां तुझे सलाम...




     इंडिया गेट से लेकर कस्बों तक गणतंत्र-गणतंत्र
देश भक्ति की लहर और मातृभूमि के प्रति अपार स्नेह लिए 26 जनवरी का दिन प्रत्येक भारतीय के लिए अहम है। इस दिन हर भारतीय अपनी निजी जिंदगी की मुसीबतों को तिलांजलि देते हुए देश के प्रति भाव-विभोर हो उठता है। वैसे भी कई महत्वपूर्ण स्मृतियां 26 जनवरी यानी गणतंत्र दिवस से जुड़ी हुई हैं। आज ही के दिन पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लाहौर में तिरंगे को फहराया था तथा स्वतंत्र भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की। इसके बाद आई वह अहम खड़ी, जब 26 जनवरी 1950 को भारतीय गणतंत्र तथा तंत्र का संविधान देश में लागू हुआ। स्मृतियां यहीं खत्म नहीं होती, आज के दिन वर्ष 1965 में हिन्दी को भारत की राजभाषा घोषित की गई। इसके अलावा वर्ष दर वर्ष ऐसे मौके आते रहे, जब गणतंत्र दिवस पर विशेष घोषणाएं हुई। फेहरिस्त काफी लंबी है, जो निरंतर बढ़ती जाएगी। यही वजह है कि इस विशेष दिन को और अधिक विशेष बनाने के लिए प्रत्येक वर्ष गणतंत्र दिवस बड़े उत्साह, उल्लास व धूमधाम के साथ पूरे देश में मनाया जाता है। बात हो, एकता-अखंडता की तो इसके बकायदा सामूहिक तौर पर नई दिल्ली स्थित लाल किले पर विशेष आयोजन किया जाता है। यहां अलग-अलग राज्यों से आई विशेष टीमें देश की विभिन्न मनमोहक छटाओं को प्रदर्शित करती हैं। वहीं राजपथ से गुजरती रोम-रोम को गौरवान्वित करने वाली विशेष परेड जब लाल किले पर पहुंचती है तो देश का कोना-कोना गदगद हो उठता है। गणतंत्र दिवस कार्यक्रम का शुभारंभ प्रधानमंत्री द्वारा देश की शान व शहादतों को सलाम करते 'इंडिया गेट' पर अमर जवान ज्योति पर पुष्प अर्पित करने के साथ होता है। यहां देश के लिए जान न्यौछावर कर देने वाले वीर जवानों को 21 तोपों की सलामी दी जाती है। इसके साथ ही महामहीम राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रीय ध्वज फहरा कर राष्ट्रीय गान शुरू किया जाता है। अतिथि देवोभव: की संस्कृतिक का निर्वाह करते हुए आज के दिन एक विदेश मेहमान को भी इस विशेष कार्यक्रम में आमंत्रित किया जाता है, जिन्हें मुख्य अतिथि का दर्जा दिया जाता है। 
लाल किले पर होने वाले इस विशेष आयोजन का दूरदर्शन के जरिए पूरे देश में सीधा प्रसारण किया जाता है। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक बैठे भारतीय इस विशेष आयोजन को लुत्फ उठाते हैं। लाल किले से जब प्रधानमंत्री देशवासियों को संबोंधित करते हैं तो लगता है हर कोई लाल किले मे ही विराजित हो। साथ ही जब परेड के दौरान भारतीय सेना द्वारा अत्याधुनिक हथियारों प्रदर्शन किया जाता है तो हर नागरिक खुद को महफूज समझता है तथा जवानों के हैरतअंगेज कारनामों को देख जवानों के प्रति श्रद्धाभाव करता है। परेड के बाद बाद महामहीम राष्ट्रपतिभारतीय जवानों को बहादुरी के लिए सम्मानित करते हैं। यहीं वीरता दिखा चुके नागरिकों और बालकों को भी सम्मानित किया जाता है। सशस्त्र सेना के हेलिकॉप्टर लाल किले में बैठे हजारों हिंदुस्तानियों पर गुलाब की बारिश करते हैं। राज्यों से आई झांकियां अपने क्षेत्र की सांस्कृतिक छटा, विशेष त्यौहार, पर्यटन स्थल और कला को प्रदर्शित करते हैं, जहां भारत एक माला में पिरोया हुआ नजर आता है। तीन दिनी इस विशेष आयोजन के तहत 27 जनवरी को इंडिया गेट पर प्रधानमंत्री रैली का आयोजन किया जाता है, जिसमें एनसीसी केडेट्स रोमांचित करने वाले कारनामें पेश करते हैं। 29 जनवरी के दिन शाम छह बजे बीटिंग द रिट्रीट के साथ ही कार्यक्रम को समापन किया जाता है। इस दिन तीनों सेना टुकडिय़ों द्वारा रग-रग को रोमांचित कर देने वाली विशेष धुन 'सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तां हमारा...' को पेश की जाती है। इसके बाद तिरंगा उतार जाता है। इस मौके पर राष्ट्रगान भी गाया जाता है। उधर आज के दिन पूरे देशभर में भी गणतंत्र दिवस पर विशेष आयोजन होते हैं। छोटे-छोटे कस्बों में स्थित राजकीय स्कूलों व निजी स्कूलों में विशेष कार्यक्रम होते हैं। देश के भविष्य नन्हे-मुन्ने आज के दिन के बारे में कई बातें जानते हैं और उनमें देशभक्ति का संचार होता है। इसी तरह प्रत्येक राज्य की राजधानी में आयोजित होने वाले गणतंत्र दिवस कार्यक्रम में  राज्यपाल महोदय झंडारोहण करते हैं। कार्यक्रम के दौरान विशेष झांकियों, परेड, प्रदर्शन व अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। निश्चित रूप से आज का दिन हर देशवासी के लिए के लिए खास है और हमें गौरव है कि ......हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती है.......

Friday, January 22, 2010

खबर...

**सुबह से लेकर रात तक.. भागती रहती है ये जिंदगी ..
कभी इस खबर.. कभी उस खबर.. मैं .. बेखबर सा होकर घूमता रहता हूँ..
बदबूदार लाशें... नालियों में सड़ती नवजात बेटियाँ... तो बेटो के जन्मोत्सव..
चौराहे पर एक कट चाय पीकर... मुई फिर भी कविता लिख लेता हूँ...
** निर्मोही सा ... अब ये मन .. नहीं पसीजता किसी घटना से.....
मोहल्ले के कुत्ते की मौत पर.... मैं कभी बहुत रोया था.... 
अब नर संहारो से भी कोई सरोकार नहीं ....
फिर भी देर रात घर लौटते वक्त.. मैं मुंडेर पर ..चिडियों का पानी भर लेता हूँ...
***परिभाषा काल की मुझे नहीं मालुम.. जाने कब क्या हो...
कोई मिला तो हंस लिए...न मिला तो चल दिए...
पदचाप अपने ...निशब्द भी मिले... तो यूंही कुछ गुनगुना लिया...
मैं कैमरा अपना पैक करके ..छोटे से कमरे का .. झाडू-पोंचा कर लेता हूँ... 
षडयंत्र..राजनीति.. विरोध ..प्रदर्शन... जीवन के अब सामान्य पहलु से हो चले ...
गोपाल..बंटी...गोलू...आबिद की...याद बहुत आती है..खेतों की मिट्टी में गुजरा था बचपन..
अब धमाको में उड़े.. बच्चों का खून...
अपनी खबर देखते-देखते... मै अपने जूतों से चुपचाप साफ कर लेता

देश की धरती

मन समर्पित, तन समर्पित और यह जीवन समर्पित
चाहता हूं देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं
माँ तुम्हारा ऋण बहुत है, मैं अकिंचन, किन्तु इतना कर रहा फिर भी निवेदन
थाल में लाऊं सजा कर भाल जब भी, कर दया स्वीकार लेना वह समर्पण
गान अर्पित, प्राण अर्पित, रक्त का कण कण समर्पित
चाहता हूं देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं
मांज दो तलवार, लाओ न देरी, बांध दो कस कर कमर पर ढाल मेरी
भाल पर मल दो चरण की धूल थोड़ी, शीश पर आशीष की छाया घनेरी
स्वप्न अर्पित, प्रश्न अर्पित, आयु का क्षण क्षण समर्पित
चाहता हूं देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं
तोड़ता हूं मोह का बन्धन, क्षमा दो, गांव मेरा, द्वार, घर, आंगन क्षमा दो
आज सीधे हाथ में तलवार दे दो और बायें हाथ में ध्वज को थमा दो
यह सुमन लो, यह चमन लो, नीड़ का त्रण त्रण समर्पित
चाहता हूं देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं....


प्रस्तुति : देव अरोड़ा

यात्रा और यात्री

सांस चलती है तुझे, चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!
चल रहा है तारकों का दल गगन में गीत गाता, चल रहा आकाश भी है, शून्य में भ्रमता-भ्रमाता,
पांव के नीचे पड़ी, अचला नहीं, यह चंचला है, एक कण भी, एक क्षण भी, एक थल पर टिक न पाता,
शक्तियां गति की तुझे, सब ओर से घेरे हुए हैं, स्थान से अपने तुझे, टलना पड़ेगा ही, मुसाफिर!
सांस चलती है तुझे, चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!
थे जहां पर गर्त पैरों को ज़माना ही पड़ा था, पत्थरों से पांव के, छाले छिलाना ही पड़ा था
घास मखमल-सी जहां थी, मन गया था लोट सहसा थी घनी छाया जहाँ पर, तन जुड़ाना ही पड़ा था
पग परीक्षा, पग प्रलोभन, ज़ोर-कमज़ोरी भरा तू, इस तरफ डटना उधर, ढलना पड़ेगा ही, मुसाफिर
सांस चलती है तुझे, चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!
शूल कुछ ऐसे पगो में, चेतना की स्फूर्ति भरते, तेज़ चलने को विवश करते, हमेशा जबकि गड़ते
शुक्रिया उनका कि वे पथ को रहे प्रेरक बनाए, किन्तु कुछ ऐसे कि रुकने के लिए मजबूर करते
और जो उत्साह का देते कलेजा चीर, ऐसे कंटकों का दल तुझे दलना पड़ेगा ही, मुसाफिर
सांस चलती है तुझे, चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!
सूर्य ने हंसना भुलाया, चंद्रमा ने मुस्कुराना, और भूली यामिनी भी तारिकाओं को जगाना
एक झोंके ने बुझाया, हाथ का भी दीप लेकिन, मत बना इसको पथिक तू बैठ जाने का बहाना
एक कोने में हृदय के आग तेरे जग रही है, देखने को मगर तुझे जलना पड़ेगा ही, मुसाफिर
सांस चलती है तुझे, चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!
वह कठिन पथ और कब उसकी मुसीबत भूलती है, सांस उसकी याद करके, भी अभी तक फूलती है
यह मनुज की वीरता है, या कि उसकी बेहयाई, साथ ही आशा सुखों का स्वप्न लेकर झूलती है
सत्य सुधियां, झूठ शायद स्वप्न, पर चलना अगर है, झूठ से सच को तुझे छलना पड़ेगा ही, मुसाफिर
सांस चलती है तुझे, चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!


साभार : श्री हरिवंश राय बच्चन
प्रस्तुति : गरिमा बिश्नोई 

Thursday, January 21, 2010

खबरों की खबर

खबरों की खबर वह रखते हैं, अपनी खबर हमेशा ढंकते हैं,
दुनियां भर के दर्द को अपनी, खबर बनाने वाले,अपने वास्ते बेदर्द होते हैं,
आंखों पर चश्मा चढ़ाये, कमीज की जेब पर पेन लटकाये, कभी कभी हाथों में माइक थमाये
चहूं ओर देखते हैं अपने लिये खबर, स्वयं से होते बेखबर, कभी खाने को तो कभी पानी को तरसे
कभी जलाती धूप तो कभी पानी बरसे, दूसरों की खबर पर फिर लपक जाते हैं
मुश्किल से अपना छिपाते दर्द होते हैं, लाख चाहे कहो, आदमी से जमाना होता है
खबरची भी होता है आदमी, जिसे पेट के लिये कमाना होता है

दूसरों के दर्द की खबर देने के लिये, खुद का पी जाना होता है
भले ही वह एक क्यों न हो, उसका पिया दर्द भी, जमाने के लिए गरल होता, खबरों से अपने महल सजाने वाले
बादशाह चाहे, अपनी खबरों से जमाने को, जगाने की बात भले ही करते हों
पर बेखबर अपने मातहतों के दर्द से होते हैं, कभी कभी अपना खून पसीना बहाने वाले खबरची
खोलते हैं धीमी आवाज में अपने बादशाहों की पोल, पर फिर भी नहीं देते खबर, अपने प्रति वह बेदर्द होते हैं...


प्रस्तुति : देव अरोड़ा 

Tuesday, January 19, 2010

वो भारत देश है मेरा ...........






हां डाल डाल पर, सोने की चिडिय़ां करती है बसेरा, वो भारत देश है मेरा। जहां सत्य अहिंसा और धर्म का, पग-पग लगता डेरा, वो भारत देश है मेरा। ये धरती वो जहां ऋषि मुनि, जपते प्रभु नाम की माला, जहाँ हर बालक एक मोहन है, और राधा हर एक बाला, जहां सूरज सबसे पहले आ कर डाले अपना फेरा, वो भारत देश है मेरा। अलबेलों की इस धरती के, त्योहार भी हैं अलबेले, कहीं दीवाली की जगमग है~~कहीं हैं होली के मेले, जहां राग रंग और हंसी खुशी का, चारों ओर है घेरा वो भारत देश है मेरा। जहां आसमान से बातें करते, मंदिर और शिवाले, जहां किसी नगर में किसी द्वार पर~~~~कोई न ताला डाले, प्रेम की बंशी जहां बजाता, है ये शाम सवेरा-------वो भारत देश है मेरा