Sunday, February 6, 2011

धर्म के नाम पर


लाज लुटती है दंगों में किसी सीता की
सारे पैगम्बरों की नींद उचट जाती है
कत्ल जब राम का कोई रहीम करता है
कुरान-ए-पाक भी उदासी में सिमट जाती है
लाश बेटे की आंसुओं से भीगोने वाला
बाप तो बाप है हिंदू या मुसलमान नहीं
मां की रोती हुई ममता की कोई जात नहीं
बहन के गम की कोई मजहबी पहचान नहीं
जो हुमायुं की कलाई पर बांधे थे कभी
तुम्हें कसम उन रेशमी धागों की
कसम है तुम्हें नानक ओ चिश्ती की आत्माओं की
सारी दुनिया को जो पैगाम-ए-अमन देती हैं
अब कोई कत्ल न हो मजहबी जुनूं के लिए
धर्म के नाम पर कोई लाश न गिरने पाए
अब कोई मां न करे जवां बेटे को रुखसत
किसी बहन के हाथों में राखी मुरझाए
हैं एक मां के बेटे, सारे ही देशवासी
बाहें गले में डाले, मिलकर चलें दुबारा
सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तां हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी, ये गुलसितां हमारा.

साभार  - दिलचस्प 

2 comments:

  1. अति सुन्दर। कमाल की रचना। पर अफसोस सब लोग अगर इसको समझ ले तो वास्तव में हमारा देश स्वर्ग बन जाए।

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