Monday, February 15, 2010

कहीं खून पानी तो नहीं बन गया?

सत्याग्रहों की नौटंकी के बीच सत्याग्रह पर अटल हकीकत की इरोम

देशवासी महात्मा गांधी, गौतम बुद्ध और महावीर जैसे अहिंसावादियों की छवि को धूमिल करने को आतुर हैं और वे जाने-अनजाने उन सफेदपोश कुकरमुतों का साथ दे रहे हैं, जो देश को दीमग की तरह खोखला कर रहे हैं। बड़ी-बड़ी बातें करने वाला लोकतंत्र का कथित चौथा स्तंभ भी नौटंकियां करने में मशगूल है, जबकि देश दिनों-दिन गर्त में जा रहा है। इन सबसे किसी भी तरह की उम्मीद करना ही बेमानी है, क्योंकि किसी को ज़रा सी लज्जा होती तो आज मणिपुर के एक अदने से हॉस्पीटल में सत्याग्रह की मिसाल बन चुकी इरोम शर्मिला यूं ना तड़प रही होती। हैरत की बात है कि आज इरोम शर्मिला जिंदगी व मौत की जंग लड़ रही है और उसने सत्याग्रह को कागज के पन्नों व भाषणों से बाहर कर हकीकत का अमली जामा पहनाया है। लेकिन अफसोस है की आज सत्याग्रह के कोई मायने नहीं रहे और सत्याग्रह पर राजनीतिक रोटियां सेकने वालों के पौ-बारह पच्चीस है।

जी हां, हम बात कर रहे हैं मणिपुर की उस इरोम शर्मिला की जो वर्ष 2000 से अनशन पर बैठी है और महज प्लास्टिक की पाईप के भरोसे जिंदा है। भले ही वह गांधी की तरह अटल व अडिग़ है, लेकिन गांधी के नुमाइंदों के पास उसके लिए तनिक भी समय नहीं है और न ही है उनके पास वो जि़गरा जो गांधी के दूसरे नाम यानी श्रीमति इंदिरा गांधी के पास था। दस वर्षों से अनवरत संघर्ष की लौ जला रही इस महिला के लिए न तो महिला संगठन आगे आ रहे हैं और न ही इंसानियत का जामा पहनने वाले मानवाधिकार संगठन। पर लगता है, उस अंधेरी रात को उजली सुबह की किरण शायद ही कभी नसीब हो, क्योंकि जिस देश का बच्चा देशभक्ति की बजाए सेक्स शिक्षा ग्रहण करता हो वहां संवेदना, इंसानियत, अपनेपन की बातें करना ही बेमानी होगी।




दरअसल, अशांत व उग्रवाद से दनदनाते मणिपुर में वर्ष 1980 से सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम [एएफएसपीए] 1958 लागू किया गया है। इस अधिनियम के तहत सेना को बल प्रयोग करने, बिना वारंट के किसी के घर में घुसकर तलाशी लेने, किसी भी वक्त कोई सर्च कार्रवाई करने, किसी को भी बिना सबूत केवल संदेह के आधार पर गिरफ्तार करने व गोली मारने की छूट दी जाती है। यही नहीं कार्रवाई करने वाले सेना-पुलिस कर्मी के खिलाफ केंद्र सरकार की अनुमति के बिना कोई न्यायिक कार्रवाई नहीं हो सकती। इसी छूट का फायदा जायज-नाजायज तौर पर उठाया जा रहा है। मणिपुर में आतंकवाद के साथ सरकारी कहर भी जारी है। भारत छोड़ों आंदोलन के दिनों जो हालात देशभर में थे वे आज मणिपुर में हैं। इरोम शर्मिला इसी तानाशाही रवैये को बयां करते अधिनियम के खिलाफ है और वो इसे हटाने की मांग को लेकर अनशन पर है, जिसे चार नवंबर 2009 को एक दशक बीत गया। इरोम शर्मिला यानी लोहस्त्री, जिसका जन्म 14 मार्च 1972 को मणिपुर के छोटे से कस्बे में हुआ। बेहद होनहार व छरहरी काया वाली ईरोम लेखन में रुचि रखती थी और इस कारण उसने पत्रकारिता में कोर्स किया तथा इसके बाद वह एक स्थानीय अखबार में नियमित कॉलम भी लिखती रही। इरोम के युवाकाल के दिनों मणिपुर विद्रोह की आग में झुलस रहा था, जो अब तक जारी है। इसी बीच एक नवंबर 2000 को असम के दो विद्रोही संगठनों के बीच हुए एक हमले से आहत स्थानीय बटालियन ने मालोम बस स्टैंड पर करीब दस बेकसूर लोगों को मार गिराया। अगले दिन समाचार पत्रों में जो भयावह तस्वीरें प्रकाशित हुईं, उनमें वर्ष 1988 में राष्ट्रपति से वीरता पुरस्कार प्राप्त कर चुकी 18 वर्षीय सिनम चंद्रमणी का बदहाल शव था। उसके अलावा 62 वर्षीय वृद्ध महिला लिसेंगबम इबेतोमी सहित आठ और क्षत-विक्षत शव भी थे। इन्हें देखकर बदहवास हुई युवा इरोम चुन्नु शर्मिला खुद का संभाल नहीं पाई और चार नवंबर 2000 से राष्ट्रपिता गांधी के कदम चिन्हों पर चलते हुए सत्याग्रह शुरू कर दिया। हालांकि उसे उस दिन आभास नहीं था कि अब न तो गांधी जी हैं और न गांधी के नक्शेकदम चलने वालों का कोई शागिर्द। चौंकाने वाली बात है कि गांधी के इस देश में युवा शर्मिला को किसी का साथ तो नहीं मिला, बल्कि फिरंगियों की तानाशाही के मानिद उसे आत्महत्या के आरोप में दो दिन बाद ही गिरफ्तार कर सलाखों के पीछे भेज दिया गया। इसके बाद शुरू हुआ सलाखों से छूटने और फिर से पकड़े जाने का, जो अभी तक जारी है। इरोम फिलहाल अपने अनवरत सत्याग्रह के साथ 'एक अरबी' देश को जगाने की जुगत में है...... लेकिन यह मशां कब पूरी होगी कोई नहीं जानता। पर क्या हमें नहीं लगता कि आज हम सब मिलकर इस खामोश आवाज को बुलंद करें? क्या मां दुर्गा, मदर टेरेसा, श्रीमति इंदिरा गांधी, महारानी लक्ष्मीबाई के इस वतन में इरोम पर जुल्म होता रहेगा और सब जुबां रखते हुए भी खामोश रहेंगे? क्या आधुनिकता के दौर में इतने व्यस्त हो चुके हैं कि हमने कर्म, धर्म, निष्ठा, प्रतिष्ठा, संस्कारों और पुरोधाओं को त्याग दिया है? या फिर .........क्या आज वर्ष 1857 वाला खून पानी बन चुका है?

2 comments:

  1. वास्तव में ऐसा ही है. नपुंसकों से भर गया है पूरा देश.

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  2. nahi bus inki taadaad badh gayi aur ,napunsakon ke haathon main power chali gayi hai.

    very well said sir ji..


    saare ke saare vishva ki tarah , bharat main bhi opprtunists power ka bolbala ho gaya hai.


    I support all goes with your point of view.

    all the best and carry on your good work

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